जागरण संपादकीय: मजाक बना अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, डब्ल्यूटीओ जैसी संस्थाएं प्रासंगिकता खो रही
संयुक्त राष्ट्र विश्व बैंक आइएमएफ और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) जैसे प्रमुख अंतरराष्ट्रीय संगठनों में सुधार के लिए कई बार आवाज उठाई गई है क्योंकि बदलते परिवेश में ये अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे हैं। विश्व बैंक आइएमएफ और डब्ल्यूटीओ का अपने उद्देश्यों के प्रति वास्तविक समर्पण लंबे समय से संदिग्ध ही रहा है।
Rahul Sharma
5/26/20251 min read


भारत-पाकिस्तान के बीच हालिया सैन्य टकराव के दौरान अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) के कार्यकारी बोर्ड ने पाकिस्तान को 1.4 अरब डालर का नया लोन भारत के कड़े विरोध के बावजूद दे दिया। इसके साथ ही उसने एक्सटेंडेड फंड फैसिलिटी (ईएफएफ) के तहत मिल रहे करीब 60 हजार करोड़ रुपये की मदद की पहली समीक्षा को भी मंजूरी दी।
इससे पाकिस्तान को अगली किस्त के करीब 8,542 करोड़ रुपये मिलेंगे। आइएमएफ बोर्ड बैठक में भारत ने पाकिस्तान को दी जा रही राशि पर चिंता जताते हुए कहा था कि इस फंड का दुरुपयोग वह आतंकवादी उद्देश्यों के लिए कर सकता है। भारत से सैन्य टकराव के बीच आइएमएफ का यह निर्णय फंडिंग एजेंसियों और दानदाताओं की प्रतिष्ठा को धूमिल करता है और वैश्विक मूल्यों का मजाक उड़ाता है। यह आइएमएफ के उस निर्णय के भी ठीक विपरीत है, जिसमें फरवरी 2022 में रूस के यूक्रेन पर आक्रमण के बाद आइएमएफ ने उसके साथ अपने वार्षिक परामर्श को रोक दिया था। खेद की बात है कि इस बार वह इतना भी नहीं कर सका।
संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक, आइएमएफ और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) जैसे प्रमुख अंतरराष्ट्रीय संगठनों में सुधार के लिए कई बार आवाज उठाई गई है, क्योंकि बदलते परिवेश में ये अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे हैं। विश्व बैंक, आइएमएफ और डब्ल्यूटीओ का अपने उद्देश्यों के प्रति वास्तविक समर्पण लंबे समय से संदिग्ध ही रहा है। रूस-यूक्रेन और इजरायल-हमास युद्धों के साथ-साथ बढ़ती वैश्विक समस्याओं के कारण संयुक्त राष्ट्र जैसा संगठन भी अपने उद्देश्यों में नाकाम रहा है।
दुनिया में यह भावना बढ़ रही है कि एक संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र लगातार अप्रभावी होता जा रहा है। आइएमएफ की स्थापना 1944 में ब्रेटनवुड्स सम्मेलन में नेक इरादों के साथ गई थी। आज इसके सदस्य देशों की संख्या 191 है। पिछले कुछ वर्षों में आइएमएफ अपनी भूमिका से न्याय नहीं कर पाया है। आइएमएफ 2008 के वित्तीय संकट की निगरानी और उसका आकलन करने में भी पूरी तरह विफल रहा था, जबकि लेहमैन ब्रदर्स के पतन से कुछ दिन पहले ही ऐसी आशंका बढ़ चुकी थी। आइएमएफ ने शायद ही कभी किसी भी संकट से निपटने की वैश्विक अर्थव्यवस्था की क्षमता के बारे में आशावादी रुख दिखाया हो।
पाकिस्तान 35 वर्षों में 28 बार आइएमएफ से मदद ले चुका है। अगर पहले दिए गए कर्ज का पाकिस्तान ने सही उपयोग किया होता, तो उसे बार-बार मदद की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए अब फिर नया लोन दिया जाना आइएमएफ की मंशा के साथ-साथ उसकी निगरानी पर भी सवाल खड़े करता है। निश्चय ही नए कर्ज के दुरुपयोग का खतरा अधिक है। आइएमएफ के बड़े कर्जदार देशों में पाकिस्तान चौथे नंबर पर है, जिससे उसने 8.3 अरब डालर का कर्ज ले रखा है।
संयुक्त राष्ट्र की 2021 की रिपोर्ट स्पष्ट संकेत करती है कि पाकिस्तान में चुनी हुई सरकार के बावजूद वहां के कामकाज में सेना का पूरा हस्तक्षेप रहता है। सेना वहां की अन्य अनेक नीतियों के साथ आर्थिक नीतियों को भी प्रभावित करती है। यदि पाकिस्तान ने आइएमएफ की मदद का विकास कार्यों में उपयोग किया होता, तो पाकिस्तान मानव विकास सूचकांक में 193 देशों में 168वें स्थान पर नहीं होता।
इस वक्त पाकिस्तान का हर बच्चा अपने सिर पर करीब 85 हजार रुपये का कर्ज लेकर पैदा होता है। पाकिस्तान में वेतन और सब्सिडी जैसे खर्च से लेकर तेल और गैस का आयात बिल तक सब कुछ कर्ज पर चल रहा है। पाकिस्तान का सार्वजनिक ऋण उसकी जीडीपी का 69.4 प्रतिशत हो गया है।
आइएमएफ का उद्देश्य विश्व की सभी मुद्राओं को स्थिर रखने और मुक्त व्यापार की सुविधा देना था, परंतु दुर्भाग्य से पिछले कई वर्षों से आइएमएफ इन उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पा रहा है। उसके पास गलत परियोजनाओं के लिए जवाबदेही का भी अभाव है। कर्ज में डूबे देशों द्वारा डिफाल्ट को रोकने के लिए नए ऋण देने की आइएमएफ की नियमित प्रथा एक नैतिक जोखिम पैदा करती है। इसीलिए भी आइएमएफ की प्रणाली पर कड़ी निगाह रखने के साथ उसमें आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
विश्व बैंक और आइएमएफ को आंतरिक न्याय, जवाबदेही और निगरानी कार्यों का पुनर्गठन भी करना चाहिए। बोर्ड की बैठकों और वोटिंग में अधिक पारदर्शिता लाना भी जरूरी है। वैश्वीकरण और संघर्ष समाधान के नए तरीकों से जूझ रहे विश्व में इन संगठनों की भूमिका पर लगातार प्रश्न उठ रहा है। ज्यादातर संगठन अपने उदेश्यों में असफल साबित हो रहे हैं।
यदि उन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता तो उनमें व्यापक सुधार तो जरूर किया जाना चाहिए। आइएमएफ को फंड देने के तरीकों में सुधार शुरू करने का यही सही समय है। इसके साथ ही बेलआउट कार्यक्रमों की प्रभावशीलता की भी समीक्षा करनी होगी। 2023 में भारत की अध्यक्षता में हुई जी 20 बैठक के दौरान आइएमएफ सहित अन्य बहुपक्षीय संस्थानों में सुधार पर बात हुई थी। दुनिया को सोचना होगा कि संयुक्त राष्ट्र, आइएमएफ, विश्व बैंक आदि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में निवेश की गई वित्तीय और बौद्धिक पूंजी का विश्व भर के लोकतंत्र में कैसे बेहतर उपयोग हो। आज दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों को इनके पारदर्शी कार्यों की पहले से कहीं ज्यादा जरूरत है।
(सेंटर फार पब्लिक अफेयर्स एंड रिसर्च के अध्यक्ष राहुल शर्मा का यह आलेख मूल रूप से दैनिक जागरण में 13 मई 2025 को प्रकाशित हुआ।)